Udham Singh Biography in Hindi – शहीद ऊधम सिंह की जीवनी
नमस्कार, आज हम शहीद उधम सिंह की जीवनी को पढेंगे. यह लेख श्यामलाल जी के द्वारा लिखा गया है. इससे पहले कि हम ऊधम सिंह (Udham Singh) के बारे में जाने, उससे पहले इस लेख के कवी के बारे में भी संक्षेप में जान लेते हैं.
लेखक के बारे में – श्यामलाल (Shyamlal)
श्यामलाल जी का जन्म सन् 1939 में उत्तर प्रदेश में हुआ । इन्होंने समाजशास्त्र विषय में प्रार्नातक की परीक्षा पास की । लगभग 38 वर्षो तक साक्षरता निकेतन, लखनऊ में विभिन्न पदों पर रहकर सेवा कार्य किया । जुलाई 1999 में पाठ्यक्रम एवं सामग्री निर्माण विभाग में अध्यक्ष पद से सेवानिवृत्त हुए ।
इनकी प्रमुख प्रकाशित रचनायें इस प्रकार हैं:-
लघु उपन्यास : वही गाँव, अँधेरा छँट गया, कहानी तुलसी काकी की, सम्पतिया, वे दिन दूर नहीं, जिन्दगी हँसती रहे ।
सामाजिक उपन्यास. एक राखी एक दीपक, जब क्रान्ति जन्म लेगा, नया रास्ता, सपना सच होगा आदि । इनके अतिरिक्त विभिन्न पत्र-पत्रिकाओंमें इनके 15० के लगभग कहानी तथा लेख प्रकाशित हुए हैं । इनका मूल उद्देश्य समाज की सेवा करना तथा स्वतन्त्र लेखन है ।
शहीद ऊधम सिंह ‘ की जीवनी में लेखक ने देश पर शहीद होने वाले क्रान्तिकारी ऊधम सिंह पर प्रकाश डाला है जलियांवाला बाग गोलीकाण्ड केवल भारतीय लोगों के लिए ही नहीं विश्व के लोगों के लिए भी निन्दनीय था । क्योकि यह काण्ड भारतीय लोगों से जुड़ा थर अत: किसी भारतीय का ही खून खौल सकता था । ऊधम सिंह ने इसे अपने जीवन का एक मात्र लक्ष्य बना लिया कि वह इस हत्याकांड के जिम्मेदार लोगों को समाप्त करेगा? इक्कीस वर्ष बाद उन्होंने अपने प्रण को अंजाम दिया । इसे हम ऊधम सिंह का प्रतिशोध नहीं कह सकते? यह उसकी देश भक्ति थी । उसने देश भर के लोगों की अनुभूतियों को साकार रूप दिया था । देश पर कुर्बान होने वाले ऐसे लोगों के सम्मुख हमें नतमस्तक होना चाहिए
Portrait of Shaheed Udham Singh (शहीद ऊधम सिंह का चित्र)
शहीद ऊधम सिंह 13 अप्रैल, 1919 की घटना है । उस दिन वैशाखी का पवित्र त्योहार था । उसी दिन पंजाब के अमृतसर जिले के जलियांवाला बाग में एक विशाल सभा आयोजित की गई थी । कहने को सभा थी, पर वह था एक तरह का मेला । बच्चे, बूढ़े, स्त्री-पुरुष लगभग 20-25 हजार लोग इकट्ठा हुए थे । उन्हीं में 19 साल का एक युवक भी शामिल था । उसका नाम था सरदार ऊधम सिंह उर्फ शेर सिंह ।
सभा मैं दो क्रांतिकारियों -डॉ. सत्यपाल और डॉ. सैफुद्दीन किचलू की रिहाईकी माँग की गई थी । इन क्रांतिकारियों को 11 अप्रैल को अंग्रेज सरकार ने गिरफ्तार कर लिया था । इस गिरफ्तारी को लेकर क्षेत्र में काफी तनाव था ।
तनाव की स्थिति से निपटने के लिए अमृतसर के जिला कलेक्टर ने सेना को लगा दिया था । जलियांवाला बाग में हो रही सभा की खबर पंजाब के गवर्नर सर माइकल डायर को मिली तो उसने ब्रिगेडियर जनरल रेजिनाल्ड ई.एच. डायर को आदेश दिया कि वह जलियांवाला बाग में सेना लगा दे । जनरल डायर के हुक्म से सैनिकों ने बाग को चारों ओर से घेर लिया । बाग में आने-जाने के लिए एक ही रास्ता था । बाकी तीन तरफ .ऊँची दीवार थी ।
बाग भीड़ से खचाखच भरा था । सभी लोग प्रसन्न थे । सभा चल रही थी । एक आदमी मंच पर खड़ा होकर भाषण दे रहा था । तभी जनरल डायर गेट से सभा की ओर आया । उसके इशारे पर सैनिक भी आगे बड़े और अपनी बन्दूकें सभा की ओर तान दीं । पापी डायर ने सैनिकों को गोली चलाने का आदेश दे दिया । बस, पलक, झपकते ही हजारों लोग-बच्चे, बूढ़े, जवान गोलियों से भून दिए गए । किसी को भागने का रास्ता नहीं मिला । चारों ओर कुहराम मच गया । देखते-देखते बाग में खून की नदियाँ बह चलीं । लाशों के ढेर लग गए । सरदार ऊधमसिंह एक पेड़ पर चढ़ गए थे और पत्तों में सिर छिपाए बैठे रहे । उनकी जान बच गई ।
इस निर्मम हत्याकांड को देखकर उनका दिल काँप उठा । जिसने सुना उसी के रोंगटे खड़े हो गए । सारा शहर दुःख के सागर में डूब गया । संसार की यह सबसे बड़ी अमानवीय घटना थी ।
संसार का यह कानून है कि प्रथम श्रेणी के जज की अनुमति के बिना कोई फोर्स चाहे पुलिस हो या सेना, इस तरह गोली नहीं चला सकती । लेकिन वहाँ कानून की कोई बात नहीं थी । वहाँ तो अत्याचार था, अंग्रेजों की नीचता थी । जनरल डायर ने वहाँ कोई चेतावनी नहीं दी, सभा से भाग जाने को नहीं कहा । बस, गोलियाँ चलवाने लगा ।
इस नरसंहार को देखकर ऊधमसिंह का खून खौल उठा । उन्होंने इस नरसंहार के दोषी लोगों से बदला लेने की भीषण प्रतिज्ञा कर ली । इस हत्याकांड के मुख्य दोषी तीन लोग थे – एक थे पंजाब के गवर्नर सर माइकल डायर, दूसरे थे ब्रिगेडियर जनरल ई. एच. डायर और तीसरे थे भारत के राज्य सचिव लार्ड जेट लैंड । इन तीनों को खत्म कर देने की ऊधमसिंह ने प्रतिज्ञा कर ली….. और 21 साल बाद उनकी प्रतिज्ञा पूरी हुई । वे तीनों अपने देश इंग्लैंड चले गए थे । उनमें से एक मर गया था । दो को ऊधमसिंह ने वहीं जाकर मारा था । इंग्लैंड में ही उन्हें फाँसी हुई थी । ऐसा वीर बहादुर बालक न तो संसार में जन्मा है, न जन्म लेगा । उसी वीर साहसी भारत माता के सपूत की यह कहानी है ।
यह कहानी शुरू होती है पंजाब प्राँत के संगरूर जिले के एक गाँव से । गाँव का नाम था सुनाम । इसी गाँव के एक रारीब परिवार में 1899 ई. में ऊधमसिंह का जन्म हुआ था । इनके पिता टहलसिंह रेल सेना में चौकीदार थे । इनकी माता की नाम नारायणी देवी था । पति-पत्नी दोनों बहुत ही सरल स्वभाव के व्यक्ति थे । इनके दो पुत्र थे । बड़े का नाम साधोसिंह था- उससे छोटा ऊधम सिंह था । ऊधमसिंह के बचपन का नाम शेरसिंह था । बाद में ऊधमसिंह हो गया ।
ऊधमसिंह बचपन से बहुत ही निडर स्वभाव के बालक थे । गुलेल चलाना, चिड़ियों को मारना, गड्ढा खोदकर जानवरों को फँसाना, कुश्ती लड़ना इनके बचपन के खेल थे । ऐसे होनहार बालक का बचपन बहुत ही मुसीबतों में गुजरा । जब यह ढाई वर्ष के थे तभी इनकी माता नारायणी देवी का देहांत हो गया था । बच्चों का भविष्य न बिगड़े यह सोचकर टहलसिंह ने दूसरा विवाह नहीं किया । इन बच्चों का पालन-पोषण उन्होंने स्वयं किया । वह सरकारी नौकरी करते और बाकी समय इन बच्चों की सेवा में लगाते ।
जब बच्चे स्कूल जाने के लायक हुए तो आसपास कोई स्कूल नहीं था और न ही कोई पड़ाने वाला था । पड़ोस में एक पंडित जी थे । वह बहुत ही दयालु थे । उन्होंने इन बच्चों को पड़ाने का वायदा किया । प्रतिदिन वह घर आकर पढ़ा जाते थे । उन्होंने ऊधमसिंह की तेज बुद्धि को देखकर एक दिन टहलसिंह से कहा, ” इन बच्चों का किसी अच्छे स्कूल में नाम लिखा दो । ”
पंडित जी की बात सुनकर टहलसिंह ने कहा, ” बहुत गरीब हूँ । इन्हें अच्छे स्कूल में कैसे पढ़ा पाऊँगा । ”
पंडित जी बोले, ” अपनी बदली किसी शहर के स्टेशन पर करवा लो और इन बच्चों की पढ़ाई का प्रबन्ध करो । ”
पंडित जी की सलाह से टहलसिंह ने अपनी बदली अमृतसर के रेलवे स्टेशन प्र करवा ली । वहीं रहने लगे और दोनों बच्चों का नाम एक स्कूल में लिखा दिया । दोनों बच्चे स्कूल जाने लगे ।
कहते हैं; जब मुसीबत आने को होती है तो कहीं भी पीछा नहीं छोड़ती । एक दिन अचानक टहलसिंह का भी देहांत हो गया । दोनों बच्चे अनाथ हो गए । दोनों अभी अबोध थे । कहाँ जाएं क्या करें, उन्हें कुछ पता ही नहीं था । कोई नाते-रिश्तेदार भी काम नहीं आए । टहलसिंह का अंतिम संस्कार पास-पड़ोस के लोगों ने किया । उस रात दोनों बच्चे घर में बिलखते रहे । कब सोए होंगे, कोई नहीं जानता ।
दूसरे दिन उनके स्कूल के एक अध्यापक पं. जयचंद्र शर्मा आ गए । उन्होंने दोनों बच्चों को प्यार किया । उनके आँसू पोंछे और स्वयं भी इतने दुखी हो गए कि उनकी आँखें डबडबा आईं । उन्होंने सोचा, इन अनाथ बालकों को अब कौन देखेगा? ये किसके सहारे जिंदा रहेंगे? कौन इन्हें भोजन -पानी देगा? – यही सब सोच कर उन्होंने दोनों बालकों को एक अनाथालय में भर्ती करवा दिया ।
दोनों बच्चे अनाथालय से स्कूल आते रहे । पंडित शर्मा का उनसे असीम प्यार बना रहा । लेकिन दुर्भाग्य ने अभी भौ उनका पीछा नहीं छोड़ा । साधो सिंह को निमोनिया हो गया और असमय एक दिन वह भी स्वर्ग सिधार गया । अब रूह गया अकेला ऊधम सिंह । आप सोच सकते हैं, क्या बीती होगी उस बालक पर, जिसका बचपन हर तरफ से सूना हो गया । एक भाई बचा था वह भी चला गया ।
अब ऊधम सिंह बेसहारा था । अनाथ था । संसार में उसका कोई नहीं था । अगर था कोई तो ईश्वर और पं. जयचंद्र शर्मा, । शर्मा जी ही ऊधम सिंह का सहारा बने । कुछ दिन उन्होंने उन्हें अपने घर रखा । उनकी पढ़ाई-लिखाई का प्रबंध करते रहे ।
इस प्रकार ऊधमसिंह का बचपन अभावों एवं घोर मुसीबतों में बीता । अनाथ आश्रम में रहते हुए वह किशोर हो गए । जयचंद्र शर्मा उनके सच्चे गुरु थे । उनसे उन्हें पिता जैसा स्नेह मिला और सबसे बड़ी शिक्षा मिली देशभक्ति की । उनके ऊपर सबसे अधिक प्रभाव मदनलाल ढींगरा का पड़ा, मंगल पांडे के चरित्र ने भी उन्हें प्रभावित किया । शर्मा जी के संपर्क से ऊधमसिंह का संपर्क क्रांतिकारियों से हो गया और वह क्रन्तिकारी गतिविधियों में शामिल हो गए ।
उस समय चारों तरफ क्रांति की ज्वाला धधक रही थी । अंग्रेज सरकार भारतीय नेताओं को कुचलने में लगी थी । अनेक नेताओं को फाँसी पर चढ़ा दिया गया! बहुतों को कालापानी की सज़ा हो गई ।
13 अप्रैल, 1919 को जलियांवाला बाग हत्याकांड हो गया । इस कांड के दोषी हत्यारों से बदला लेने की ऊधमसिंह ने कसम खाई । वह जल्दी ही उन्हें मौत की सजा देने के लिए उतावले हो उठे ।
इसी बीच इस हत्याकाँड की जाँच के लिए इंग्लैंड से एक कमेटी भेजी गई । इसको हंटर कमीशन कहा गया । हंटर नामक एक अंग्रेज इसका अध्यक्ष था । हंटर कमेटी ने जनरल ओ डायर और सर माइकल डायर को दोषी ठहराया । इसके बाद उन दोनों को नौकरी से निकाल दिया गया । वे वापस इंग्लैंड चले गए ।
जब उनके इंग्लैंड चले जाने का समाचार ऊधमसिंह को ज्ञात हुआ तो उनका कलेजा धक् से रह गया । वह बेचैन हो उठे । रात को उन्हें नींद नहीं आई । जब बेचैनी अधिक बढ़ गई तो एक दिन अनाथ आश्रम से वह चले गए । अपने एक रिश्तेदार के यहाँ मोटर गैरेज में नौकरी कर ली । उन्होंने वहाँ मोटर चलाना सीखा । मोटर काबनाना सीखा । अब वह पक्के ड़ाइवर हो गए ।
कुछ दिनों बाद मोटर गैरेज की नौकरी छोड्कर वे सहारनपुर चले आए । वहाँ ड़ाइवरी की नौकरी की, किंतु थोड़े दिन । उसके बाद लखनऊ आ गए । वहाँ एक तालुकेदार के यहाँ नौकरी कर ली । तालुकेदार के यहाँ ही उन्होंने निशानेबाजी सीखी । गोली चलाना सीखा । छ: माह बाद यहाँ से भी नौकरी छोड़ दी ।
लखनऊ से वह मेरठ चले गए । वहाँ एक होटल में नौकरी कर ली । कुछ दिन बाद वह अमृतसर वापस आ गए । वहाँ से वह लाहौर चले गए । लाहौर में ही उन्होंने हाई स्कूल व इंटर की परीक्षाएं पास कीं । नौकरी-चाकरी, व्यापार करते हुए उन्होंने काफी धन इकट्ठा कर लिया । उनको बस एक ही धुन सवार थीं-इंग्लैंड जाकर उन पापियों को मारना । पर अभी उनके पास इतना पैसा नहीं था कि वह इंग्लैंड जा सकें । पर जाने का जुगाड़ करते रहे ।
ऊधमसिंह इंग्लैंड जाने को छटपटा ही रहे थे कि एक दिन अचानक उन्होंने अखबार में पड़ा कि जलियांवाला बाग का हत्यारा ब्रिगेडियर जनरल ई. एच. डायर लम्बी बीमारी के कारण लंदन में मर गया । इस खबर को पढ़कर ऊधमसिंह को बहुत बड़ा धक्का लगा । जिसको वह मारना चाहते थे वह स्वयं मर गया । उन्होंने सोचा-कोई बात नहीं । अभी असली हत्यारा माइकल ओ डायर तो जिंदा है । उन्होंने उसको मारने का निश्चय कर लिया ।
उन्हीं दिनों उनकी मुलाकात एक ऐसे भारतीय से हुई जो अफ्रीका में रह कर व्यापार करता था । उसके साथ वह अफ्रीका चले गए और उसी के यहाँ नौकरी करने लगे । वही व्यापारी उन्हें अमरीका ले गया । कुछ दिनों तक वह अमरीका रहे । अमरीका से पुन: अफ्रीका लौट आए और कुछ दिनों बाद पंजाब वापस आ गए । इंग्लैंड जाने का कोई जुगाड़ नहीं बन पाया । फिर 1913 में उसी व्यापारी के साथ वह अमरीका चले गए लेकिन उन्हें पुन: भारत आना पड़ा ।
देश-विदेश की आवाजाही में ऊधमसिंह का बहुत से क्रांतिकारियों से संपर्क हो गया । वे गुप्त रूप से उनकी गतिविधियों में शामिल रहे । 1928 में अंग्रेज सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया । उन्हें 4 साल की सजा हो गई ।
सजा काटने के बाद 1933 में किसी तरह वे लंदन पहुँच गए । लंदन’ में उन्होंने अपना नाम बदलकर उदेसिंह रख लिया । अब वह माइकेल ओं डायर और लार्ड जेट लैंड के पीछे लग गए । बस, मौके की तलाश थी । आखिर एक ऐसी घड़ी आ ही गई जब वे दोनों एक जलसे में एक साथ आए थे । यह 13 मार्च, 194० का दिन था । ऊधमसिंह उस दिन वकील की वेशभूषा में जलसे में ‘ जाकर बैठ गए । डायर ने भाषण देना शुरू कर दिया । भाषण में भारतीयों की खुलकर बुराई की । जैसे ही उन्होंने भाषण समाप्त किया तभी ऊधमसिंह उठे, अपनी पिस्तौल निकाली और माइकल ओ डायर को गोली मार दी । लगातार कई गोलियाँ मारी । पीछे मुड़कर पास में बैठे सर जेट लैंड को भी गोली मार दी । जलसे में भगदड़ मच गई । चाहते तो ऊधमसिंह भी वहाँ से भाग जाते, पर वे भागे नहीं । थोड़ी देर बाद वह गिरफ्तार कर’ लिए गए । दूसरे दिन यह खबर संसार के सारे अखबारों में छपी । भारत के क्रांतिकारियों ने खूब खुशियाँ मनाईं । इस घटना से अंग्रेज सरकार की जड़ें हिल गईं । 21 साल बाद ऊधमसिंह की भीषण प्रतिज्ञा पूरी हो गई ।
ऊधम सिंह पर लंदन की अदालत में मुकद्दमा चला और उन्हें फाँसी की सजा हो गई । 31 जुलाई, 1940 को भारत के इस शेर को फाँसी के तख्ते पर लटका दिया गया ।
उनकी अंत्येष्टि कहाँ हुई, इस बात को अंग्रेज सरकार ने गुप्त रखा । भारत सरकार के अनुरोध पर 19 जुलाई, 1974 को ऊधम सिंह के अवशेष इंग्लैंड से भारत लाए गए । उन्हें उनके गाँव सुनाम ले जाया गया । उसके बाद हरिद्वार में गंगा में प्रवाहित कर दिया गया । इस तरह उनके जीवन की कहानी समाप्त हो गई । देश की आजादी के लिए जिस तरह का बलिदान ऊधमसिंह ने दिया, वह संसार में एक आदर्श है । यह देश हमेशा अपने इस वीर सपूत का ऋणी रहेगा, जिसने केवल देश की आजादी के लिए जन्म लिया था । ऐसे महान देशभक्त, भारत माता के सपूत का नाम हमेशा अमर रहेगा । तब तक अमर रहेगा जब तक यह आकाश रहेगा, चाँद-सितारे रहेंगे, यह धरती रहेगी ।