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डॉ भीम राव अम्बेडकर

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डॉ. भीमराव अम्बेडकर जीवनी – Dr. Br Ambedkar Biography in Hindi





डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर भारतीय संविधान के शिल्पकार और आज़ाद भारत के पहले न्याय मंत्री थे। सामाजिक भेदभाव के विरोध में कार्य करने वाले सबसे प्रभावशाली लोगो में से एक Dr. Br Ambedkar थे। विशेषतः बाबासाहेब आंबेडकर – भारतीय न्यायविद, अर्थशास्त्री, राजनेता और समाज सुधारक के नाम से जाने जाते है।

महिला, मजदूर और दलितों पर हो रहे सामाजिक भेदभाव के खिलाफ आवाज़ उठाने और लढकर उन्हें न्याय दिलाने के लिए भारतरत्न डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर को सदा आदर से स्मरण किया जाते है।

भीमराव रामजी आंबेडकर जो विश्व विख्यात है। जिन्होंने अपना पूरा जीवन बहुजनो को उनका अधिकार दिलाने में व्यतीत किया। उनके जीवन को देखते हुए निच्छित ही यह लाइन उनपर सम्पूर्ण रूप से सही साबित होगी –

पूरा नाम  – भीमराव रामजी अम्बेडकर
जन्म       – 14 अप्रेल 1891
जन्मस्थान – महू. (जि. इदूर मध्यप्रदेश)
पिता       – रामजी
माता       – भीमाबाई
शिक्षा      – 1915  में एम. ए. (अर्थशास्त्र)। 1916 में कोलंबिया विश्वविद्यालय में से PHD। 1921 में मास्टर ऑफ सायन्स। 1923  में डॉक्टर ऑफ सायन्स।
विवाह     – दो बार, पहला रमाबाई के साथ (1908 में) दूसरा डॉ. सविता कबीर के साथ (1948 में)

भीमराव रामजी आम्बेडकर का जन्म ब्रिटिशो द्वारा केन्द्रीय प्रान्त (अब मध्यप्रदेश) में स्थापित नगर व सैन्य छावनी मऊ में हुआ था। वे रामजी मालोजी सकपाल जो आर्मी कार्यालय के सूबेदार थे और भीमाबाई की 14 वी व अंतिम संतान थे।उनके प्रारंभिक करियर में वे एक अर्थशास्त्री, प्रोफेसर और वकील थे। बाद में उनका जीवन पूरी तरह से राजनितिक कामो से भर गया, वे भारतीय स्वतंत्रता के कई अभियानों में शामिल हुए, साथ ही उस समय उन्होंमे अपने राजनितिक हक्को और दलितों की सामाजिक आज़ादी, और भारत को एक स्वतंत्र राष्ट्र बनाने के लिए अपने कई लेख प्रकाशित भी किये, जो बहोत प्रभावशाली साबित हुए। 1956 में उन्होंने धर्म परिवर्तन कर के बुद्ध स्वीकारा, और ज्यादा से ज्यादा लोगो को इसकी दीक्षा भी देने लगे।

1990 में, मरणोपरांत आंबेडकर को सम्मान देते हुए, भारत का सबसे बड़ा नागरिकी पुरस्कार, “भारत रत्न” जारी किया। आंबेडकर की महानता के बहोत सारे किस्से और उनके भारतीय समाज के चित्रण को हम इतिहास में जाकर देख सकते है।उनका परिवार मराठी था और वे अम्बावाड़े नगर जो आधुनिक महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले में है, से सम्बंधित था। वे हिंदु महार (दलित) जाती से संपर्क रखते थे, जो अछूत कहे जाते थे और उनके साथ सामाजिक और आर्थिक रूप से गहरा भेदभाव किया जाता था।

आंबेडकर के पूर्वज लम्बे समय तक ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना में कार्यरत थे और उनके पिता, भारतीय सेना की मऊ छावनी में सेवा में थे ओ यहाँ काम करते हुए वो सूबेदार के पद तक पहुचे थे। उन्होने अपने बच्चो को स्कूल में पढने और कड़ी महेनत करने के लिए हमेशा प्रोत्साहित किया।

स्कूली पढाई में सक्षम होने के बावजूद आम्बेडकर और अन्य अस्पृश्य बच्चो को विद्यालय में अलग बिठाया जाता था और अध्यापको द्वारा न तो ध्यान दिया जाता था, न ही उनकी कोई सहायता की। उनको कक्षा के अन्दर बैठने की अनुमति नहीं थी, साथ ही प्यास लगने पर कोई उची जाती का व्यक्ति उचाई से पानी उनके हातो पर डालता था, क्यू की उनकी पानी और पानी के पात्र को भी स्पर्श करने की अनुमति नहीं थी।

लोगो के मुताबिक ऐसा करने से पात्र और पानी दोनों अपवित्र हो जाते थे। आमतौर पर यह काम स्कूल के चपरासी द्वारा किया जाता था जिसकी अनुपस्थिति में बालक आंबेडकर को बिना पानी के ही रहना पड़ता था। बाद में उन्होंने अपनी इस परिस्थिती को “ना चपरासी, ना पानी” से लिखते हुए प्रकाशित किया।

1894 में रामजी सकपाल सेवानिर्वुत्त हो जाने के बाद वे सहपरिवार सातारा चले गये और इसके दो साल बाद, आंबेडकर की माँ की मृत्यु हो गयी। बच्चो की देखभाल उनकी चची ने कठिन परिस्थितियों में रहते हुए की। रामजी सकपाल के केवल तिन बेटे, बलराम, आनंदराव और भीमराव और दो बेटियों मंजुला और तुलासा। अपने भाइयो और बहनों में केवल आंबेडकर ही स्कूल की परीक्षा में सफल हुए ओर इसके बाद बड़े स्कूल में जाने में सफल हुए।

अपने एक देशस्त ब्राह्मण शिक्षक महादेव आंबेडकर जो उनसे विशेष स्नेह रखते थे, उनके कहने पर अम्बावडेकर ने अपने नाम से सकपाल हटाकर आंबेडकर जोड़ लिया जो उनके गाव के नाम “अम्बावाड़े” पर आधारित था।

भीमराव आंबेडकर को आम तौर पर बाबासाहेब के नाम से जाने जाता हे, जिन्होंने आधुनिक बुद्धिस्ट आन्दोलनों को प्रेरित किया और सामाजिक भेदभाव के विरुद्ध दलितों के साथ अभियान चलाया, स्त्रियों और मजदूरो के हक्को के लिए लड़े। वे स्वतंत्र भारत के पहले विधि शासकीय अधिकारी थे और साथ ही भारत के संविधान निर्माता भी थे।

आंबेडकर एक बहोत होशियार और कुशल विद्यार्थी थे, उन्होंने कोलम्बिया विश्वविद्यालय और लन्दन स्कूल ऑफ़ इकनोमिक से बहोत सारी क़ानूनी डिग्री प्राप्त कर रखी थी और अलग-अलग क्षेत्रो में डॉक्टरेट कर रखा था, उनकी कानून, अर्थशास्त्र और राजनितिक शास्त्र पर अनुसन्धान के कारण उन्हें विद्वान की पदवी दी गयी.1920 में ‘मूक नायक’ ये अखबार उन्होंने शुरु करके अस्पृश्यों के सामाजिक और राजकीय लढाई को शुरुवात की।

1920 में कोल्हापुर संस्थान में के माणगाव इस गाव को हुये अस्पृश्यता निवारण परिषद में उन्होंने हिस्सा लिया।

1924 में उन्होंने ‘बहिष्कृत हितकारनी सभा’ की स्थापना की, दलित समाज में जागृत करना यह इस संघटना का उद्देश था।

1927 में ‘बहिष्कृत भारत’  नामका पाक्षिक शुरु किया।

1927 में महाड यहापर स्वादिष्ट पानी का सत्याग्रह करके यहाँ की झील अस्प्रुश्योको पिने के पानी के लिए खुली कर दी।

1927 में जातिव्यवस्था को मान्यता देने वाले ‘मनुस्मृती’ का उन्होंने दहन किया।

1928 में गव्हर्नमेंट लॉ कॉलेज में उन्होंने प्राध्यापक का काम किया।

1930 में नाशिक यहा के ‘कालाराम मंदिर’ में अस्पृश्योको प्रवेश देने का उन्होंने सत्याग्रह किया।

1930 से 1932 इस समय इ इंग्लड यहा हुये गोलमेज परिषद् में वो अस्पृश्यों के प्रतिनिधि बनकर उपस्थिति रहे। उस जगह उन्होंने अस्पृश्यों के लिये स्वतंत्र मतदार संघ की मांग की। 1932 में इग्लंड के पंतप्रधान रॅम्स मॅक्ड़ोनाल्ड इन्होंने ‘जातीय निर्णय’ जाहिर करके अम्बेडकर की उपरवाली मांग मान ली।

जातीय निर्णय के लिये Mahatma Gandhi का विरोध था। स्वतंत्र मतदार संघ की निर्मिती के कारण अस्पृश्य समाज बाकी के हिंदु समाज से दुर जायेगा ऐसा उन्हें लगता था। उस कारण जातीय निवडा के तरतुद के विरोध में गांधीजी ने येरवड़ा (पुणे) जेल में प्रनांतिक उपोषण आरंभ किया। उसके अनुसार महात्मा गांधी और डॉ. अम्बेडकर बिच में 25 डिसंबर 1932 को एक करार हुवा। ये करार ‘पुणे करार’ इस नाम से जाना है। इस करारान्वये डॉ. अम्बेडकर ने स्वतंत्र मतदार संघ की जिद् छोडी। और अस्पृश्यों के लिये कंपनी लॉ में आरक्षित सीटे होनी चाहिये, ऐसा आम पक्षियों माना गया।1936 में सामाजिक सुधरना के लिये राजकीय आधार होना चाहिये इसलिये उन्होंने ‘इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी’ स्थापन कि।

1942 में ‘शेड्युल्ट कास्ट फेडरेशन’ इस नाम के पक्ष की स्थापना की।

1942 से 1946 इस वक्त में उन्होंने गव्हर्नर जनरल की कार्यकारी मंडल ‘श्रम मंत्री’ बनकर कार्य किया।

1946 में ‘पीपल्स एज्युकेशन सोसायटी’ इस संस्थाकी स्थापना की।

डॉ. अम्बेडकर ने घटना मसौदा समिति के अध्यक्ष बनकर काम किया। उन्होंने बहोत मेहनत पूर्वक भारतीय राज्य घटने का मसौदा तयार किया। और इसके कारण भारतीय राज्य घटना बनाने में बड़ा योगदान दिया। इसलिये ‘भारतीय राज्य घटना के शिल्पकार’ इस शब्द में उनका सही गौरव किया जाता है।

स्वातंत्र के बाद के पहले मंत्री मंडल में उन्होंने कानून मंत्री बनकर काम किया।

1956 में नागपूर के एतिहासिक कार्यक्रम में अपने 2 लाख अनुयायियों के साथ उन्होंने बौध्द धर्म की दीक्षा ली।एक नजर में बाबासाहेब अम्बेडकर की जानकारी – Dr BR Ambedkar in Hinबाबासाहेब आंबेडकर अपने माता-पिता की 14 वी संतान थे।
अपने भाइयों-बहनों मे अंबेडकर ही स्कूल की परीक्षा में सफल हुए।
डॉ. आंबेडकर के पूर्वज ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना में कार्यरत थे।
डॉ. आंबेडकर का वास्तविक नाम अम्बावाडेकर था। लेकिन उनके शिक्षक महादेव आंबेडकर को उनसे काफी लगाव था, इसीलिए उन्हें बाबासाहेब का उपनाम ‘अम्बावाडेकर’ से बदलकर ‘आंबेडकर’ रखा।
मुंबई के सरकारी लॉ कॉलेज में वे 2 साल तक प्रिंसिपल के पद पर कार्यरत भी रह चुके है।
डॉ. आंबेडकर भारतीय संविधान की धारा 370 के खिलाफ थे, जिसके तहत भारत के जम्मू एवं कश्मीर राज्य को विशेष राज्य की पदवी दी गयी थी।
विदेश में जाकर अर्थशास्त्र में डॉक्टरेट की उपाधि पाने वाले आंबेडकर पहले भारतीय थे।
14 अक्टूबर 1956 को विजयादशमी के दिन डॉ. आंबेडकर ने नागपुर, महाराष्ट्र में अपने 5 लाख से भी ज्यादा साथियों के साथ बौद्धधर्म की दीक्षा ली।
डॉ. आंबेडकर ने एक बौद्ध भिक्षु से पारंपरिक तरीके से तीन रत्न ग्रहण और पंचशील को अपनाते हुये बौद्ध धर्म ग्रहण किया। बौद्ध-संसार के इतिहास में इसे सुवर्णाक्षरों में लिखा गया।
डॉ. आंबेडकर को डायबिटीज की बीमारी से लम्बे समय तक जूझना पड़ा था।
भारत के राष्ट्रीय ध्वज में अशोक चक्र को जगह देने का श्रेय भी डॉ. अम्बेडकर को जाता है

Br Ambedkar Books


हु  वेअर शुद्राज?,
दि अनरचेबल्स,
बुध्द अॅड हिज धम्म,
दि प्रब्लेंम ऑफ रूपी,
थॉटस ऑन पाकिस्तान आदी



AmbedkarBr Ambedkar Awards – पुरस्कार:1990  में ‘बाबा साहेब’ को देश के सर्वोच्च सम्मान ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया गया।
.Br Ambedkar Death – मृत्यु 6 दिसंबर 1956 को लगभग 63 साल की उम्र में उनका देहांत हो गया।जिस समय सामाजिक स्तर पर बहुजनो को अछूत मानकर उनका अपमान किया जाता था, उस समय आंबेडकर ने उन्हें वो हर हक्क दिलाया जो एक समुदाय को मिलना चाहिये। हमें भी अपने आसपास के लोगो में भेदभाव ना करते हुए सभी को एक समान मानना चाहिये। हर एक इंसान का जीवन स्वतंत्र है, हमें समाज का विकास करने से पहले खुद का विकास करना चाहिये। क्योकि अगर देश का हर एक व्यक्ति एक स्वयं का विकास करने लगे तो, हमारा समाज अपने आप ही प्रगतिशील हो जायेंगा।

हमें जीवन में किसी एक धर्म को अपनाने की बजाये, किसी ऐसे धर्म को अपनाना चाहिये जो स्वतंत्रता, समानता और भाई-चारा सिखाये।

चमार जाति का गौरवशाली इतिहास, कौन हैं ये लोग

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          चमार जाति का गौरवशाली इतिहास, कौन हैं ये लोग





सिकन्दर लोदी (1489-1517) के शासनकाल से पहले पूरे भारतीय इतिहास में 'चमार' नाम की किसी जाति का उल्लेख नहीं मिलता | आज जिन्हें हम चमार जाति से संबोधित करते हैं और जिनके साथ छूआछूत का व्यवहार करते हैं, दरअसल वह वीर चंवर वंश के क्षत्रिय हैं | जिन्हें सिकन्दर लोदी ने चमार घोषित करके अपमानित करने की चेष्टा की |

भारत के सबसे विश्वसनीय इतिहास लेखकों में से एक विद्वान कर्नल टाड को माना जाता है जिन्होनें अपनी पुस्तक द हिस्ट्री आफ राजस्थान में चंवर वंश के बारे में विस्तार से लिखा है |

प्रख्यात लेखक डॅा विजय सोनकर शास्त्री ने भी गहन शोध के बाद इनके स्वर्णिम अतीत को विस्तार से बताने वाली पुस्तक हिन्दू चर्ममारी जाति एक स्वर्णिम गौरवशाली राजवंशीय इतिहास" लिखी | महाभारत के अनुशासन पर्व में भी इस राजवंश का उल्लेख है | डॉ शास्त्री के अनुसार प्राचीनकाल में न तो चमार कोई शब्द था और न ही इस नाम की कोई जाति ही थी |

अर्वनाइजेशन' की लेखिका डॉ हमीदा खातून लिखती हैं मध्यकालीन इस्लामी शासन से पूर्व भारत में चर्म एवं सफाई कर्म के लिए किसी विशेष जाति का एक भी उल्लेख नहीं मिलता है | हिंदू चमड़े को निषिद्ध व हेय समझते थे | लेकिन भारत में मुस्लिम शासकों के आने के बाद इसके उत्पादन के भारी प्रयास किए गये थे |

डॅा विजय सोनकर शास्त्री के अनुसार तुर्क आक्रमणकारियों के काल में चंवर राजवंश का शासन भारत के पश्चिमी भाग में था और इसके प्रतापी राजा चंवरसेन थे | इस क्षत्रिय वंश के राज परिवार का वैवाहिक संबंध बाप्पा रावल वंश के साथ था | राणा सांगा व उनकी पत्नी झाली रानी ने चंवरवंश से संबंध रखने वाले संत रैदासजी को अपना गुरु बनाकर उनको मेवाड़ के राजगुरु की उपाधि दी थी और उनसे चित्तौड़ के किले में रहने की प्रार्थना की थी |

संत रविदास चित्तौड़ किले में कई महीने रहे थे | उनके महान व्यक्तित्व एवं उपदेशों से प्रभावित होकर बड़ी संख्या में लोगों ने उन्हें गुरू माना और उनके अनुयायी बने | उसी का परिणाम है आज भी विशेषकर पश्चिम भारत में बड़ी संख्या में रविदासी हैं | राजस्थान में चमार जाति का बर्ताव आज भी लगभग राजपूतों जैसा ही है | औरतें लम्बा घूंघट रखती हैं आदमी ज़्यादातर मूंछे और पगड़ी रखते हैं |

संत रविदास की प्रसिद्धी इतनी बढ़ने लगी कि इस्लामिक शासन घबड़ा गया सिकन्दर लोदी ने मुल्ला सदना फकीर को संत रविदास को मुसलमान बनाने के लिए भेजा वह जानता था की यदि रविदास इस्लाम स्वीकार लेते हैं तो भारत में बहुत बड़ी संख्या में इस्लाम मतावलंबी हो जायेगे लेकिन उसकी सोच धरी की धरी रह गयी स्वयं मुल्ला सदना फकीर शास्त्रार्थ में पराजित हो कोई उत्तर न दे सका और उनकी भक्ति से प्रभावित होकर अपना नाम रामदास रखकर उनका भक्त वैष्णव (हिन्दू) हो गया | दोनों संत मिलकर हिन्दू धर्म के प्रचार में लग गए जिसके फलस्वरूप सिकंदर लोदी आगबबूला हो उठा एवं उसने संत रैदास को कैद कर लिया और इनके अनुयायियों को चमार यानी अछूत चंडाल घोषित कर दिया | उनसे कारावास में खाल खिचवाने, खाल-चमड़ा पीटने, जुती बनाने इत्यादि काम जबरदस्ती कराया गया उन्हें मुसलमान बनाने के लिए बहुत शारीरिक कष्ट दिए | लेकिन उन्होंने कहा :-

वेद धर्म सबसे बड़ा, अनुपम सच्चा ज्ञान,
फिर मै क्यों छोडू इसे, पढ़ लू झूठ कुरान.
वेद धर्म छोडू नहीं, कोसिस करो हज़ार,
तिल-तिल काटो चाहि, गोदो अंग कटार   (रैदास रामायण)

संत रैदास पर हो रहे अत्याचारों के प्रतिउत्तर में चंवर वंश के क्षत्रियों ने दिल्ली को घेर लिया | इससे भयभीत हो सिकन्दर लोदी को संत रैदास को छोड़ना पड़ा था | संत रैदास का यह दोहा देखिए :-

बादशाह ने वचन उचारा | मत प्यारा इसलाम हमारा ||
खंडन करै उसे रविदासा  | उसे करौ प्राण कौ नाशा ||
जब तक राम नाम रट लावे | दाना पानी यह नहींपावे ||
जब इसलाम धर्म स्वीकारे | मुख से कलमा आपा उचारै ||
पढे नमाज जभी चितलाई | दाना पानी तब यह पाई ||

समस्या तो यह है कि आपने और हमने संत रविदास के दोहों को ही नहीं पढ़ा, जिसमें उस समय के समाज का चित्रण है जो बादशाह सिकंदर लोदी के अत्याचार, इस्लाम में जबरदस्ती धर्मांतरण और इसका विरोध करने वाले हिंदू ब्राहमणों व क्षत्रियों को निम्न कर्म में धकेलने की ओर संकेत करता है |

चंवर वंश के वीर क्षत्रिय जिन्हें सिकंदर लोदी ने 'चमार' बनाया और हमारे-आपके हिंदू पुरखों ने उन्हें अछूत बना कर इस्लामी बर्बरता का हाथ मजबूत किया | इस समाज ने पददलित और अपमानित होना स्वीकार किया, लेकिन विधर्मी होना स्वीकार नहीं किया आज भी यह समाज हिन्दू धर्म का आधार बनकर खड़ा है |

आज भारत में 23 करोड़ मुसलमान हैं और लगभग 35 करोड़ अनुसूचित जातियों के लोग हैं | जरा सोचिये इन लोगों ने भी मुगल अत्याचारों के आगे हार मान ली होती और मुसलमान बन गये होते तो आज भारत में मुस्लिम जनसंख्या 50 करोड़ के पार होती और आज भारत एक मुस्लिम राष्ट्र बन चुका होता | यहाँ भी जेहाद का बोलबाला होता और ईराक, सीरिया, सोमालिया, पाकिस्तान और अफगानिस्तान आदि देशों की तरह बम-धमाके, मार-काट और खून-खराबे का माहौल होता | हम हिन्दू या तो मार डाले जाते या फिर धर्मान्तरित कर दिये जाते या फिर हमें काफिर के रूप में अत्यंत ही गलीज जिन्दगी मिलती |

धन्य हैं हमारे ये भाई जिन्होंने पीढ़ी दर पीढ़ी अत्याचार और अपमान सहकर भी हिन्दुत्व का गौरव बचाये रखा और स्वयं अपमानित और गरीब रहकर भी हर प्रकार से भारतवासियों की सेवा की |


Udham Singh Biography in Hindi

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UDHAM SINGH


Udham Singh Biography in Hindi – शहीद ऊधम सिंह की जीवनी


नमस्कार, आज हम शहीद उधम सिंह की जीवनी को पढेंगे. यह लेख श्यामलाल जी के द्वारा लिखा गया है. इससे पहले कि हम ऊधम सिंह (Udham Singh) के बारे में जाने, उससे पहले इस लेख के कवी के बारे में भी संक्षेप में जान लेते हैं.

लेखक के बारे में – श्यामलाल (Shyamlal)

श्यामलाल जी का जन्म सन् 1939 में उत्तर प्रदेश में हुआ । इन्होंने समाजशास्त्र विषय में  प्रार्नातक की परीक्षा पास की । लगभग 38 वर्षो तक साक्षरता निकेतन, लखनऊ में विभिन्न पदों पर रहकर सेवा कार्य किया । जुलाई 1999 में पाठ्यक्रम एवं सामग्री निर्माण विभाग में अध्यक्ष पद से सेवानिवृत्त हुए ।
इनकी प्रमुख प्रकाशित रचनायें इस प्रकार हैं:-
लघु उपन्यास : वही गाँव, अँधेरा छँट गया, कहानी तुलसी काकी की, सम्पतिया, वे दिन दूर नहीं, जिन्दगी हँसती रहे ।

सामाजिक उपन्यास. एक राखी एक दीपक, जब क्रान्ति जन्म लेगा, नया रास्ता, सपना सच होगा आदि । इनके अतिरिक्त विभिन्न पत्र-पत्रिकाओंमें इनके 15० के लगभग कहानी तथा लेख प्रकाशित हुए हैं । इनका मूल उद्देश्य समाज की सेवा करना तथा स्वतन्त्र लेखन है ।
शहीद ऊधम सिंह ‘ की जीवनी में लेखक ने देश पर शहीद होने वाले क्रान्तिकारी ऊधम सिंह पर प्रकाश डाला है जलियांवाला बाग गोलीकाण्ड केवल भारतीय लोगों के लिए ही नहीं विश्व के लोगों के लिए भी निन्दनीय था । क्योकि यह काण्ड भारतीय लोगों से जुड़ा थर अत: किसी भारतीय का ही खून खौल सकता था । ऊधम सिंह ने इसे अपने जीवन का एक मात्र लक्ष्य बना लिया कि वह इस हत्याकांड के जिम्मेदार लोगों को समाप्त करेगा? इक्कीस वर्ष बाद उन्होंने अपने प्रण को अंजाम दिया । इसे हम ऊधम सिंह का प्रतिशोध नहीं कह सकते? यह उसकी देश भक्ति थी । उसने देश भर के लोगों की अनुभूतियों को साकार रूप दिया था । देश पर कुर्बान होने वाले ऐसे लोगों के सम्मुख हमें नतमस्तक होना चाहिए  


Portrait of Shaheed Udham Singh (शहीद ऊधम सिंह का चित्र)
शहीद ऊधम सिंह 13 अप्रैल, 1919 की घटना है । उस दिन वैशाखी का पवित्र त्योहार था । उसी दिन पंजाब के अमृतसर जिले के जलियांवाला बाग में एक विशाल सभा आयोजित की गई थी । कहने को सभा थी, पर वह था एक तरह का मेला । बच्चे, बूढ़े, स्त्री-पुरुष लगभग 20-25 हजार लोग इकट्ठा हुए थे । उन्हीं में 19 साल का एक युवक भी शामिल था । उसका नाम था सरदार ऊधम सिंह उर्फ शेर सिंह ।


सभा मैं दो क्रांतिकारियों -डॉ. सत्यपाल और डॉ. सैफुद्दीन किचलू की रिहाईकी माँग की गई थी । इन क्रांतिकारियों को 11 अप्रैल को अंग्रेज सरकार ने गिरफ्तार कर लिया था । इस गिरफ्तारी को लेकर क्षेत्र में काफी तनाव था ।
तनाव की स्थिति से निपटने के लिए अमृतसर के जिला कलेक्टर ने सेना को लगा दिया था । जलियांवाला बाग में हो रही सभा की खबर पंजाब के गवर्नर सर माइकल डायर को मिली तो उसने ब्रिगेडियर जनरल रेजिनाल्ड ई.एच. डायर को आदेश दिया कि वह जलियांवाला बाग में सेना लगा दे । जनरल डायर के हुक्म से सैनिकों ने बाग को चारों ओर से घेर लिया । बाग में आने-जाने के लिए एक ही रास्ता था । बाकी तीन तरफ .ऊँची दीवार थी ।

बाग भीड़ से खचाखच भरा था । सभी लोग प्रसन्न थे । सभा चल रही थी । एक आदमी मंच पर खड़ा होकर भाषण दे रहा था । तभी जनरल डायर गेट से सभा की ओर आया । उसके इशारे पर सैनिक भी आगे बड़े और अपनी बन्दूकें सभा की ओर तान दीं । पापी डायर ने सैनिकों को गोली चलाने का आदेश दे दिया । बस, पलक, झपकते ही हजारों लोग-बच्चे, बूढ़े, जवान गोलियों से भून दिए गए । किसी को भागने का रास्ता नहीं मिला । चारों ओर कुहराम मच गया । देखते-देखते बाग में खून की नदियाँ बह चलीं । लाशों के ढेर लग गए । सरदार ऊधमसिंह एक पेड़ पर चढ़ गए थे और पत्तों में सिर छिपाए बैठे रहे । उनकी जान बच गई ।
इस निर्मम हत्याकांड को देखकर उनका दिल काँप उठा । जिसने सुना उसी के रोंगटे खड़े हो गए । सारा शहर दुःख के सागर में डूब गया । संसार की यह सबसे बड़ी अमानवीय घटना थी ।

संसार का यह कानून है कि प्रथम श्रेणी के जज की अनुमति के बिना कोई फोर्स चाहे पुलिस हो या सेना, इस तरह गोली नहीं चला सकती । लेकिन वहाँ कानून की कोई बात नहीं थी । वहाँ तो अत्याचार था, अंग्रेजों की नीचता थी । जनरल डायर ने वहाँ कोई चेतावनी नहीं दी, सभा से भाग जाने को नहीं कहा । बस, गोलियाँ चलवाने लगा ।


इस नरसंहार को देखकर ऊधमसिंह का खून खौल उठा । उन्होंने इस नरसंहार के दोषी लोगों से बदला लेने की भीषण प्रतिज्ञा कर ली । इस हत्याकांड के मुख्य दोषी तीन लोग थे – एक थे पंजाब के गवर्नर सर माइकल डायर, दूसरे थे ब्रिगेडियर जनरल ई. एच. डायर और तीसरे थे भारत के राज्य सचिव लार्ड जेट लैंड । इन तीनों को खत्म कर देने की ऊधमसिंह ने प्रतिज्ञा कर ली….. और 21 साल बाद उनकी प्रतिज्ञा पूरी हुई । वे तीनों अपने देश इंग्लैंड चले गए थे । उनमें से एक मर गया था । दो को ऊधमसिंह ने वहीं जाकर मारा था । इंग्लैंड में ही उन्हें फाँसी हुई थी । ऐसा वीर बहादुर बालक न तो संसार में जन्मा है, न जन्म लेगा । उसी वीर साहसी भारत माता के सपूत की यह कहानी है ।
यह कहानी शुरू होती है पंजाब प्राँत के संगरूर जिले के एक गाँव से । गाँव का नाम था सुनाम । इसी गाँव के एक रारीब परिवार में 1899 ई. में ऊधमसिंह का जन्म हुआ था । इनके पिता टहलसिंह रेल सेना में चौकीदार थे । इनकी माता की नाम नारायणी देवी था । पति-पत्नी दोनों बहुत ही सरल स्वभाव के व्यक्ति थे । इनके दो पुत्र थे । बड़े का नाम साधोसिंह था- उससे छोटा ऊधम सिंह था । ऊधमसिंह के बचपन का नाम शेरसिंह था । बाद में ऊधमसिंह हो गया ।
ऊधमसिंह बचपन से बहुत ही निडर स्वभाव के बालक थे । गुलेल चलाना, चिड़ियों को मारना, गड्‌ढा खोदकर जानवरों को फँसाना, कुश्ती लड़ना इनके बचपन के खेल थे । ऐसे होनहार बालक का बचपन बहुत ही मुसीबतों में गुजरा । जब यह ढाई वर्ष के थे तभी इनकी माता नारायणी देवी का देहांत हो गया था । बच्चों का भविष्य न बिगड़े यह सोचकर टहलसिंह ने दूसरा विवाह नहीं किया । इन बच्चों का पालन-पोषण उन्होंने स्वयं किया । वह सरकारी नौकरी करते और बाकी समय इन बच्चों की सेवा में लगाते ।
जब बच्चे स्कूल जाने के लायक हुए तो आसपास कोई स्कूल नहीं था और न ही कोई पड़ाने वाला था । पड़ोस में एक पंडित जी थे । वह बहुत ही दयालु थे । उन्होंने इन बच्चों को पड़ाने का वायदा किया । प्रतिदिन वह घर आकर पढ़ा जाते थे । उन्होंने ऊधमसिंह की तेज बुद्धि को देखकर एक दिन टहलसिंह से कहा, ” इन बच्चों का किसी अच्छे स्कूल में नाम लिखा दो । ”
पंडित जी की बात सुनकर टहलसिंह ने कहा, ” बहुत गरीब हूँ । इन्हें अच्छे स्कूल में कैसे पढ़ा पाऊँगा । ”
पंडित जी बोले, ” अपनी बदली किसी शहर के स्टेशन पर करवा लो और इन बच्चों की पढ़ाई का प्रबन्ध करो । ”
पंडित जी की सलाह से टहलसिंह ने अपनी बदली अमृतसर के रेलवे स्टेशन प्‌र करवा ली । वहीं रहने लगे और दोनों बच्चों का नाम एक स्कूल में लिखा दिया । दोनों बच्चे स्कूल जाने लगे ।
कहते हैं; जब मुसीबत आने को होती है तो कहीं भी पीछा नहीं छोड़ती । एक दिन अचानक टहलसिंह का भी देहांत हो गया । दोनों बच्चे अनाथ हो गए । दोनों अभी अबोध थे । कहाँ जाएं क्या करें, उन्हें कुछ पता ही नहीं था । कोई नाते-रिश्तेदार भी काम नहीं आए । टहलसिंह का अंतिम संस्कार पास-पड़ोस के लोगों ने किया । उस रात दोनों बच्चे घर में बिलखते रहे । कब सोए होंगे, कोई नहीं जानता ।
दूसरे दिन उनके स्कूल के एक अध्यापक पं. जयचंद्र शर्मा आ गए । उन्होंने दोनों बच्चों को प्यार किया । उनके आँसू पोंछे और स्वयं भी इतने दुखी हो गए कि उनकी आँखें डबडबा आईं । उन्होंने सोचा, इन अनाथ बालकों को अब कौन देखेगा? ये किसके सहारे जिंदा रहेंगे? कौन इन्हें भोजन -पानी देगा? – यही सब सोच कर उन्होंने दोनों बालकों को एक अनाथालय में भर्ती करवा दिया ।
दोनों बच्चे अनाथालय से स्कूल आते रहे । पंडित शर्मा का उनसे असीम प्यार बना रहा । लेकिन दुर्भाग्य ने अभी भौ उनका पीछा नहीं छोड़ा । साधो सिंह को निमोनिया हो गया और असमय एक दिन वह भी स्वर्ग सिधार गया । अब रूह गया अकेला ऊधम सिंह । आप सोच सकते हैं, क्या बीती होगी उस बालक पर, जिसका बचपन हर तरफ से सूना हो गया । एक भाई बचा था वह भी चला गया ।


अब ऊधम सिंह बेसहारा था । अनाथ था । संसार में उसका कोई नहीं था । अगर था कोई तो ईश्वर और पं. जयचंद्र शर्मा, । शर्मा जी ही ऊधम सिंह का सहारा बने । कुछ दिन उन्होंने उन्हें अपने घर रखा । उनकी पढ़ाई-लिखाई का प्रबंध करते रहे ।
इस प्रकार ऊधमसिंह का बचपन अभावों एवं घोर मुसीबतों में बीता । अनाथ आश्रम में रहते हुए वह किशोर हो गए । जयचंद्र शर्मा उनके सच्चे गुरु थे । उनसे उन्हें पिता जैसा स्नेह मिला और सबसे बड़ी शिक्षा मिली देशभक्ति की । उनके ऊपर सबसे अधिक प्रभाव मदनलाल ढींगरा का पड़ा, मंगल पांडे के चरित्र ने भी उन्हें प्रभावित किया । शर्मा जी के संपर्क से ऊधमसिंह का संपर्क क्रांतिकारियों से हो गया और वह क्रन्तिकारी गतिविधियों में शामिल हो गए ।
उस समय चारों तरफ क्रांति की ज्वाला धधक रही थी । अंग्रेज सरकार भारतीय नेताओं को कुचलने में लगी थी । अनेक नेताओं को फाँसी पर चढ़ा दिया गया! बहुतों को कालापानी की सज़ा हो गई ।
13 अप्रैल, 1919 को जलियांवाला बाग हत्याकांड हो गया । इस कांड के दोषी हत्यारों से बदला लेने की ऊधमसिंह ने कसम खाई । वह जल्दी ही उन्हें मौत की सजा देने के लिए उतावले हो उठे ।
इसी बीच इस हत्याकाँड की जाँच के लिए इंग्लैंड से एक कमेटी भेजी गई । इसको हंटर कमीशन कहा गया । हंटर नामक एक अंग्रेज इसका अध्यक्ष था । हंटर कमेटी ने जनरल ओ डायर और सर माइकल डायर को दोषी ठहराया । इसके बाद उन दोनों को नौकरी से निकाल दिया गया । वे वापस इंग्लैंड चले गए ।
जब उनके इंग्लैंड चले जाने का समाचार ऊधमसिंह को ज्ञात हुआ तो उनका कलेजा धक् से रह गया । वह बेचैन हो उठे । रात को उन्हें नींद नहीं आई । जब बेचैनी अधिक बढ़ गई तो एक दिन अनाथ आश्रम से वह चले गए । अपने एक रिश्तेदार के यहाँ मोटर गैरेज में नौकरी कर ली । उन्होंने वहाँ मोटर चलाना सीखा । मोटर काबनाना सीखा । अब वह पक्के ड़ाइवर हो गए ।
कुछ दिनों बाद मोटर गैरेज की नौकरी छोड्‌कर वे सहारनपुर चले आए । वहाँ ड़ाइवरी की नौकरी की, किंतु थोड़े दिन । उसके बाद लखनऊ आ गए । वहाँ एक तालुकेदार के यहाँ नौकरी कर ली । तालुकेदार के यहाँ ही उन्होंने निशानेबाजी सीखी । गोली चलाना सीखा । छ: माह बाद यहाँ से भी नौकरी छोड़ दी ।
लखनऊ से वह मेरठ चले गए । वहाँ एक होटल में नौकरी कर ली । कुछ दिन बाद वह अमृतसर वापस आ गए । वहाँ से वह लाहौर चले गए । लाहौर में ही उन्होंने हाई स्कूल व इंटर की परीक्षाएं पास कीं । नौकरी-चाकरी, व्यापार करते हुए उन्होंने काफी धन इकट्‌ठा कर लिया । उनको बस एक ही धुन सवार थीं-इंग्लैंड जाकर उन पापियों को मारना । पर अभी उनके पास इतना पैसा नहीं था कि वह इंग्लैंड जा सकें । पर जाने का जुगाड़ करते रहे ।
ऊधमसिंह इंग्लैंड जाने को छटपटा ही रहे थे कि एक दिन अचानक उन्होंने अखबार में पड़ा कि जलियांवाला बाग का हत्यारा ब्रिगेडियर जनरल ई. एच. डायर लम्बी बीमारी के कारण लंदन में मर गया । इस खबर को पढ़कर ऊधमसिंह को बहुत बड़ा धक्का लगा । जिसको वह मारना चाहते थे वह स्वयं मर गया । उन्होंने सोचा-कोई बात नहीं । अभी असली हत्यारा माइकल ओ डायर तो जिंदा है । उन्होंने उसको मारने का निश्चय कर लिया ।
उन्हीं दिनों उनकी मुलाकात एक ऐसे भारतीय से हुई जो अफ्रीका में रह कर व्यापार करता था । उसके साथ वह अफ्रीका चले गए और उसी के यहाँ नौकरी करने लगे । वही व्यापारी उन्हें अमरीका ले गया । कुछ दिनों तक वह अमरीका रहे । अमरीका से पुन: अफ्रीका लौट आए और कुछ दिनों बाद पंजाब वापस आ गए । इंग्लैंड जाने का कोई जुगाड़ नहीं बन पाया । फिर 1913 में उसी व्यापारी के साथ वह अमरीका चले गए लेकिन उन्हें पुन: भारत आना पड़ा ।


देश-विदेश की आवाजाही में ऊधमसिंह का बहुत से क्रांतिकारियों से संपर्क हो गया । वे गुप्त रूप से उनकी गतिविधियों में शामिल रहे । 1928 में अंग्रेज सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया । उन्हें 4 साल की सजा हो गई ।
सजा काटने के बाद 1933 में किसी तरह वे लंदन पहुँच गए । लंदन’ में उन्होंने अपना नाम बदलकर उदेसिंह रख लिया । अब वह माइकेल ओं डायर और लार्ड जेट लैंड के पीछे लग गए । बस, मौके की तलाश थी । आखिर एक ऐसी घड़ी आ ही गई जब वे दोनों एक जलसे में एक साथ आए थे । यह 13 मार्च, 194० का दिन था । ऊधमसिंह उस दिन वकील की वेशभूषा में जलसे में ‘ जाकर बैठ गए । डायर ने भाषण देना शुरू कर दिया । भाषण में भारतीयों की खुलकर बुराई की । जैसे ही उन्होंने भाषण समाप्त किया तभी ऊधमसिंह उठे, अपनी पिस्तौल निकाली और माइकल ओ डायर को गोली मार दी । लगातार कई गोलियाँ मारी । पीछे मुड़कर पास में बैठे सर जेट लैंड को भी गोली मार दी । जलसे में भगदड़ मच गई । चाहते तो ऊधमसिंह भी वहाँ से भाग जाते, पर वे भागे नहीं । थोड़ी देर बाद वह गिरफ्तार कर’ लिए गए । दूसरे दिन यह खबर संसार के सारे अखबारों में छपी । भारत के क्रांतिकारियों ने खूब खुशियाँ मनाईं । इस घटना से अंग्रेज सरकार की जड़ें हिल गईं । 21 साल बाद ऊधमसिंह की भीषण प्रतिज्ञा पूरी हो गई ।
ऊधम सिंह पर लंदन की अदालत में मुकद्दमा चला और उन्हें फाँसी की सजा हो गई । 31 जुलाई, 1940 को भारत के इस शेर को फाँसी के तख्ते पर लटका दिया गया ।
उनकी अंत्येष्टि कहाँ हुई, इस बात को अंग्रेज सरकार ने गुप्त रखा । भारत सरकार के अनुरोध पर 19 जुलाई, 1974 को ऊधम सिंह के अवशेष इंग्लैंड से भारत लाए गए । उन्हें उनके गाँव सुनाम ले जाया गया । उसके बाद हरिद्वार में गंगा में प्रवाहित कर दिया गया । इस तरह उनके जीवन की कहानी समाप्त हो गई । देश की आजादी के लिए जिस तरह का बलिदान ऊधमसिंह ने दिया, वह संसार में एक आदर्श है । यह देश हमेशा अपने इस वीर सपूत का ऋणी रहेगा, जिसने केवल देश की आजादी के लिए जन्म लिया था । ऐसे महान देशभक्त, भारत माता के सपूत का नाम हमेशा अमर रहेगा । तब तक अमर रहेगा जब तक यह आकाश रहेगा, चाँद-सितारे रहेंगे, यह धरती रहेगी ।

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